वित्तीय आपातकाल क्या होता है ?और यह कब लगाया जाता है पढ़े व् जाने महत्वपूर्ण तथ्य
भारत सहित पूरे विश्व में (कोविड-1 के कारण आर्थिक और सामाजिक गतिविधियाँ ठप्प पड़ी हैं.इस कारण भारत के सामने वित्तीय संकट दिनों दिन गहराता जा रहा है.भारत के सभी सांसदों, राष्ट्रपति सहित अन्य कर्मचारियों और देश के सामान्य नागरिकों ने देश को बहुत बड़ी मात्रा में अपनी सैलरी दान की है.
चूंकि अभी तक देश में एक बार भी वित्तीय “आपातकाल“ घोषित नहीं किया गया है, इस कारण बहुत से लोग यह नहीं जानते हैं कि वित्तीय “आपातकाल“ कब और किन परिस्तिथियों में लगाया जाता है, इसके लागू होने के प्रभाव क्या होते हैं और इसको कौन लागू कर सकता है? आइये इस लेख में इन सभी प्रश्नों के उत्तर जानते हैं.
जब देश की संप्रभुता, अखंडता, एकता और सुरक्षा पर कोई संभावित खतरा हो तो केंद्र सरकार को उस स्थिति से निपटने के लिए, अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने में कोई असमर्थता या असुविधा ना हो उस स्थिति के लिए आपातकाल का प्रावधान संविधान में लाया गया. दरअसल यह प्रावधान हमारे संविधान निर्माताओं की दूरगामी सोच का ही परिणाम था, जिसमें उन्होंने इस प्रकार की स्थिति की परिकल्पना की. जो लोग संविधान के बारे में थोड़ा भी जानते हैं उन्हें पता होगा कि हमारे संविधान का ज्यादातर हिस्सा भारत सरकार अधिनियम 1935 से लिया गया है, पर यह बात काफी कम लोगों को पता होगी कि आपातकाल भी उसी अधिनियम से लिया गया है. हालाँकि आपातकाल के समय जो हमारे मूल अधिकार समाप्त होते हैं वह हमारे संविधान में जर्मनी के वीमर संविधान से लिए गए हैं. वही वीमर संविधान जो हिटलर के दौर में 1933-1945 तक के नाजी युग में रहा. इस आपातकाल के दौरान देश का संघीय ढांचा काफी कमजोर होकर केंद्रीकृत हो जाता है. भारत के संविधान के भाग 18 के अनुच्छेद 352-360 में आपातकाल का जिक्र आता है. भारत में वैसे तो आपातकाल 3 प्रकार के है पर आज हम यहाँ केवल राष्ट्रीय आपातकाल का जिक्र करेंगे.
राष्ट्रीय “आपातकाल” का जिक्र अनुच्छेद 352 के अंतर्गत आता है. इसमें भी कई बिंदु हैं जिनके आधार पर राष्टीय “आपातकाल“ लगाया जाता है. जैसे किसी अन्य देश के साथ भारत का युद्ध हो रहा हो या भारत सरकार के खिलाफ कोई शशस्त्र विद्रोह हो जाए (पहले आंतरिक अशांति का जिक्र था जिसे 1978 में संविधान में संशोधन कर बदला गया). भारत में अभी तक तीन बार राष्ट्रीय आपातकाल लागू किया गया है; 1962-1968 तक भारत-चीन और भारत पाकिस्तान के युद्ध के समय, 1971 में भारत-पाकिस्तान के युद्ध के समय और 1975 में आंतरिक अशांति पर.
1975 के “आपातकाल“ को आज भी कई लोग गैर संवैधानिक मानते हैं. केशवानन्द भारती और गोलक नाथ ये केस ऐसे थे जिनमें सरकार और न्यायपालिका के बीच ठनी हुई थी पर जब इलाहाबद उच्च न्यायालय ने 12 जून 1975 में राज नारायण केस में प्रधानमंत्री (इंदिरा गाँधी के खिलाफ चुनवी कदाचार का फैसला सुनाया तो इसने एक ट्रिगर का काम किया. दरअसल 1971 के चुनावों में राज नारायण ने इंदिरा गाँधी के खिलाफ चुनाव लड़ा जिसमें राज नारायण की हार हुई और राज नारयण ने इलाहाबद उच्च न्यायालय में यह केस किया कि इंदिरा गाँधी ने चुनावों में धांधली करी है, और संवैधानिक संस्थाओं का उपयोग अपने फायदे के लिए किया है. 12 जून 1975 को इलाहाबाद न्यायालय ने इंदिरा गाँधी को दोषी पाया और उनपर 6 वर्ष तक चुनाव लड़ने का प्रतिबंध लगा दिया. अब जब 1976 में आम चुनाव होने थे तो यह साफ़ हो चुका था कि इंदिरा गाँधी अब चुनाव नहीं लड़ पाएंगी, तो इसके जवाब में 10 दिन बाद इंदिरा गाँधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी. शायद सत्ता के लालच में वे भूल चुकी थी कि उन्ही के पिता और देश के पहले प्रधामंत्री नेहरू ने इस देश के लोकतंत्र को ज़िंदा रखने की कसमें खाई थी. 26 जून 1975 को आकाशवाणी से इंदिरा गाँधी ने कहा, “.भाईयों और बहनों राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है, इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है.”
अब इसी दौर में समय आया जय प्रकाश नारायण का जो राजनीति से संन्यास ले चुके थे. पर बिहार में काँग्रेस की सत्ता के खिलाफ उन्होंने छात्रों के एक आन्दोलन का समर्थन किया, और कौंग्रेस को सत्ता से हटाने की मांग करने लगे. इसी दौर में बिहार के नेता लालू प्रसाद यादव, नितीश कुमार उभरकर सामने आए. शुरुआत तो इस आन्दोलन की बिहार की राज्य सरकार के खिलाफ हुई थी पर धीरे धीरे यह आन्दोलन इंदिरा गाँधी के खिलाफ होना शुरू हो गया. जेपी नारायण ने नारा दिया, “आप मुझे एक वर्ष दीजिए मैं एक नया देश बनाऊंगा.” 25 जून 1975 को दिल्ली के राममीला, मैदान से जेपी नारायण ने सभी सेनाओं से अपील की कि, “आप किसी का गलत हुक्म ना माने, ये आर्मी एक्ट और पुलिस एक्ट में लिखा हुआ है कि अनुचित और अनैतिक आदेशों का पालन करना दंडनीय अपराध है. सेना का पहला काम है संविधान और लोकतंत्र की श्रेष्ठता बनाए रखना.” जेपी नारायण जो खुद एक गाँधीवादी थे और उन्होंने कहा था कि इस आन्दोलन में किसी प्रकार की हिंसा नहीं होनी चाहिए.
25 जून की रात 11 बजे इंदिरा गाँधी ने अपने गृहमंत्री ब्रह्मानंद रेड्डी को बुलाया, जिसके एक घंटे में “आपातकाल“ के कागज़ हस्ताक्षर होने के लिएराष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद के पास पहुँच गए. उनके हस्ताक्षर के बाद देश में आपातकाल लग गया और सभी नागरिकों के मूल अधिकार समाप्त कर दिए गए. सुबह के समय कैबिनेट की मे जब आपातकाल का घोषणा पत्र सुनाया गया तो सभी शांत थे पर जब स्वर्ण सिंह ने कुछ बोलने की कोशिश की तो उन्हें शांत करा दिया गया. जेपी नारायण और चन्द्रशेखर को गिरफ्तार कर लिया गया और अन्य विरोधियों की भी गिरफ्तारी होने लगी. “मीसा” के तहत 36,000 से ज्यादा लोगों को देशभर में गिरफ्तार किया गया था. इसी घटनाक्रम में ए एन राय को उच्चतम न्यायालयका न्यायालय बनाया गया जबकि वरीयता क्रम में अभी वह बहुत पीछे थे. हालात इतने बदतर हो गए कि दिल्ली में एक जगह प्रदर्शन कर रहे लोगों पर पुलिस ने गोलियां चला दी. जेल में बंद लोगों को प्रताड़ना देकर पूछताछ की गई. अखबार, रेडियो सब जगह प्रतिबंध लगा दिए गए, अखबारों में इंदिरा गाँधी के खिलाफ कुछ ना छपे इसलिए प्रेस की लाईट भी कटवा दी गई. यहाँ तक कि अनुच्छेद 20 और 21 भी समाप्त कर दिए गए जो नागरिक को जीने का अधिकार देते हैं. आबादी नियंत्रण के लिए जबरदस्ती नसबंदी करवाई गई कई जगह तो आंकड़े बढाने के लिए 70-80 वर्ष के लोगों की भी नसबंदी कर दी गई. उस समय के इंदिरा गाँधी के विरोधियों का कहना है कि इतनी ज्यादा गिरफ्तारियाँ उस समय हुई थी कि जेल छोटी पड़ने लगी.
धीरे धीरे “आपातकाल“का दौर आगे बढा, इसे बीच इंदिरा गाँधी को लगने लगा कि वह आसानी से आम चुनाव जीत जाएंगी और जनवरी 1977 में घोषणा हुई कि मार्च के माह में आम चुनाव होंगे. इस तरह आपातकाल का दौर हटा. पर इंदिरा गाँधी यहाँ पर गलत साबित हुई और 1977 के आम चुनावों में उनकी बुरी तरह से हार हुई और मोरारजी देसाई (जनता दल) पहले गैर काँग्रेसी नेता जो प्रधानमंत्री बने. मोरारजी देसाई ने अब शाह आयोग का गठन किया जिसके अंतर्गत आपातकाल क्योँ लगाया गया इसके कारणों की जाँच करनी थे. इस आयोग ने पाया कि ऐसा कोई ठोस कारण नहीं था उस समय कि आपातकाल लगाया जाए, और आयोग ने इसके लिए जिम्मेदार लोगों पर कानूनी कार्रवाई का मुद्दा उठाया, पर जब तक कार्रवाई होती तब तक 1979 में मोरारजी देसाई ने इस्तीफा दे दिया और चौधरी चरण सिंह अगले प्रधानमंत्री बने पर वह सफल नहीं हुए. पर जनता दल ने अपने समय में संविधान में बदलाव करते हुए 44वाँ संशोधन किया और आपातकाल के कानूनों में काफी बदलाव किए.
वित्तीय आपतकाल हमारे संविधान की एक ऐसी व्यवस्था है जिससे देश या देश की किसी राज्य में आई वित्तीय दुर्व्यवस्था का सामना किया जा सके।
आर्टिकल ३६० में जो लिखा है उससे सरल भाषा में समझे तो यह निष्कर्ष आता है।
“अगर हमारे राष्ट्रपति जी को लगे कि कोई क्षेत्र या फिर पूरे देश में आर्थनैतिक मंदी बहुत नीचे तक चली गई है, या फिर सरकार के पास काम चलाने को धनराशि नहीं है, अथवा कहीं से लाने का साधन भी नहीं है या फिर ऐसी कोई आर्थिक दुर्व्यवस्था है, तब वो देश या प्रदेश में “ वित्तीय “आपातकाल“” घोषणा कर सकते हैं।
इस घोषणा के तहत –
- सरकारी कर्मचारियों के वेतन राशि को घटाये जाने पर कोई विरोध नहीं हो सकता।
- सारे आर्थिक बिल को राष्ट्रपति जी की मुहर लगती है।
- सेवा कर तथा आयकर में सरकार बढ़ोत्तरी कर सकते हैं आदि।
- सरकार बैंक तथा आरबीआई को कह कर ब्याज फिर रेपो रेट बढ़ा भी सकती हैं।
कहने की बात यह है कि सरकार तब वित्तीय अवस्था सुधारने हेतु जो भी पदक्षेप लेगी, उसका जनसाधारण विरोध नहीं कर सकती।
यहाँ पर ध्यान देना पड़ेगा कि सरकार आर्थिक रूप से निम्न वर्ग के लोगों ऊपर कोई भार नहीं डालेगी। बस मध्यम तथा धनी श्रेणी से भरपाई करेगी।
वित्तीय आपातकाल क्या होता है और इसके क्या क्या परिणाम होते हैं?
भारत का संविधान में आपातकालीन प्रावधान जर्मनी के संविधान से लिए गए हैं. भारत के संविधान में तीन प्रकार के आपातकालों का प्रावधान किया गया है. ये हैं;
भारत में “आपातकाल“ के प्रकार (Types of Emergency in India)
(i) आर्टिकल 352 में राष्ट्रीय आपातकाल
(ii) आर्टिकल 356 में राज्य में आपातकाल (राष्ट्रपति शासन)
(iii) आर्टिकल अनुच्छेद 360 में देश में वित्तीय आपातकाल
आइये अब डिटेल में जानते हैं कि आखिर वित्तीय आपातकाल क्या होता है?
वित्तीय आपातकाल की घोषणा कब और किसके द्वारा की जाती है? (Who can declare Financial Emergency)
अनुच्छेद 360,राष्ट्रपति को वित्तीय आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार देता है. यदि राष्ट्रपति संतुष्ट है कि देश में ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसके कारण भारत की वित्तीय स्थिरता, भारत की साख या उसके क्षेत्र के किसी भी हिस्से की वित्तीय स्थिरता को खतरा है, तो वह केंद्र की सलाह पर वित्तीय आपातकाल की घोषणा कर सकता है.
लेकिन यह ध्यान रहे कि 1978 के 44 वें संविधान संशोधन अधिनियम में यह प्रावधान किया गया है कि राष्ट्रपति की ‘संतुष्टि’ न्यायिक समीक्षा से परे नहीं है, अर्थात सुप्रीम कोर्ट इसकी समीक्षा कर सकता है.
वित्तीय आपातकाल कैसे और कब तक के लिए लगाया जाता है (Parliamentary Approval and Duration of the Financial Emergency)
जिस दिन राष्ट्रपति, वित्तीय “आपातकाल“ की घोषणा करता है उसके दो माह के अंदर ही इसको संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए. वित्तीय आपातकाल की घोषणा को मंजूरी देने वाले प्रस्ताव को संसद के किसी भी सदन द्वारा केवल एक साधारण बहुमत द्वारा पारित किया जा सकता है.
एक बार संसद के दोनों सदनों द्वारा अनुमोदित किए जाने के बाद, वित्तीय आपातकाल अनिश्चित काल तक जारी रहता है, जब तक कि इसे राष्ट्रपति द्वारा हटाया नहीं जाता है. इसके दो प्रावधान है;
a. इसके संचालन के लिए कोई अधिकतम अवधि निर्धारित नहीं है; और b. इसकी निरंतरता के लिए बार-बार संसदीय अनुमोदन की आवश्यकता नहीं है.
वित्तीय आपातकाल की उद्घोषणा को राष्ट्रपति द्वारा बाद में किसी भी समय रद्द किया जा सकता है. इस तरह की उद्घोषणा को संसदीय अनुमोदन की आवश्यकता नहीं होती है.
वित्तीय आपातकाल के प्रभाव (Effects of Financial Emergency)
1. वित्तीय आपातकाल के दौरान केंद्र के कार्यकारी अधिकार का विस्तार हो जाता है और वह किसी भी राज्य को अपने हिसाब से वित्तीय आदेश दे सकता है.
2. राज्य की विधायिका द्वारा पारित होने के बाद राष्ट्रपति के विचार के लिए आये सभी धन विधेयकों या अन्य वित्तीय बिलों को रिज़र्व रखा जा सकता है.
3. राज्य में नौकरी करने वाले सभी व्यक्तियों या वर्गों के वेतन और भत्ते में कमी की जा सकती है.
4. राष्ट्रपति, निम्न व्यक्तियों के वेतन एवं भत्तों में कमी करने का निर्देश जारी कर सकता है;
a. संघ की सेवा करने वाले सभी व्यक्तियों या किसी भी वर्ग के लोग
b. उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीश.
इस प्रकार, वित्तीय आपातकाल के संचालन के दौरान केंद्र; वित्तीय मामलों में राज्यों पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त कर लेता है जो कि राज्य की वित्तीय संप्रभुता के लिए खतरे वाली स्थिति होती है.
इससे पहले भारत में 1991 गंभीर वित्तीय संकट उत्पन्न हुआ थ लेकिन फिर भी वित्तीय आपातकाल (Financial Emergency) की घोषणा नहीं की गई थी. इसलिए इस समय भी सरकार को सोच समझकर फैसला लेना चाहिए हालाँकि किसी भी स्थिति से निपटने के लिए पूरा देश एक साथ खड़ा है.
जानिये भारत में राष्ट्रीय “आपातकाल“ कब और क्यों लगाया गया था?
भारत के राष्ट्रपति को यह अधिकार है कि वह बाह्य आक्रमण, सशक्त विद्रोह अथवा आसन्न खतरे के आधार पर सम्पूर्ण देश या देश के किसी विशेष हिस्से में राष्ट्रीय आपातकाल (अनुच्छेद 352) की घोषणा कर सकता है.
अनुच्छेद 352 के अंतर्गत घोषित किये जाने वाले राष्ट्रीय आपातकाल के लिए संविधान में केवल “आपातकाल की घोषणा” शब्द का इस्तेमाल किया है. ध्यान रहे कि राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा सम्पूर्ण देश या देश के किसी विशिष्ट भाग के लिए भी लागू की जा सकती है. राष्ट्रपति को यह अधिकार संविधान के 42वें संशोधन (1976) के आधार पर दिया गया है.
जानिये भारत में राष्ट्रीय “आपातकाल“कब और क्यों लगाया गया था?
राष्ट्रीय आपातकाल किसे कहते हैं? (What is National Emergency)
भारत का संविधान के अनुच्छेद 352 में राष्ट्रीय आपातकाल का प्रावधान है. राष्ट्रीय आपातकाल उस स्थिति में लगाया जाता है जब पूरे देश को या इसके किसी भाग की सुरक्षा को युद्ध अथवा बाह्य आक्रमण अथवा सशक्त विद्रोह के कारण खतरा उत्पन्न हो जाता है. भारत में पहला राष्ट्रीय आपातकाल इंदिरा गाँधी की सरकार ने 25 जून 1975 को घोषित किया था और यह 21 महीनों तक चला था.
आपातकाल लगने से पहले देश का राजनीतिक माहौल
इंदिरा गांधी द्वारा 1969 में 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने से भारत के बैंकों पर अमीर घरानों का कब्ज़ा ख़त्म होने और ‘प्रिवी पर्स’ (राजपरिवारों को मिलने वाले भत्ते) खत्म करने जैसे फैसलों से इंदिरा की इमेज ‘गरीबों के मसीहा’ के रूप में बन गई थी.
अपने सलाहकार और हिंदी के प्रसिद्ध कवि श्रीकांत वर्मा द्वारा दिए गए ‘गरीबी हटाओ’ के नारे ने देश में इंदिरा की छवि गरीबों के मसीहा के रूप में पक्का किया था. अब लोगों को लग रहा था कि सिर्फ इंदिरा ही गरीबों के लिए लड़ रही है.
यही कारण है कि जब मार्च 1971 में देश में आम चुनाव हुए तो कांग्रेस पार्टी को जबरदस्त जीत मिली थी. कुल 518 सीटों में से कांग्रेस को दो तिहाई से भी ज्यादा (352) सीटें हासिल हुई थी.
इस चुनाव में इंदिरा गाँधी भी उत्तर प्रदेश की रायबरेली लोक सभा सीट से एक लाख से भी ज्यादा वोटों से चुनी गई थीं. उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के प्रत्याशी राजनारायण को हराया था. (नीचे तस्वीर में)
बताते चलें कि राजनारायण उत्तर प्रदेश के वाराणसी के प्रखर समाजवादी नेता थे. उनके इंदिरा गांधी से कई मसलों पर नीतिगत मतभेद थे. इसलिए वे कई बार उनके खिलाफ रायबरेली से चुनाव लड़े और हारते रहे. वर्ष 1971 में भी उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा लेकिन उन्होंने इंदिरा गांधी की इस जीत को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दी और यहीं से शुरू होता है देश में राजनीतिक उथल पुथल का दौर.
कोर्ट का निर्णय इंदिरा का खिलाफ
राजनारायण के कोर्ट में वकील थे प्रसिद्द वकील शांतिभूषण. हाईकोर्ट में दायर अपनी याचिका में राजनारायण ने इंदिरा गांधी पर सरकारी मशीनरी और संसाधनों के दुरुपयोग और भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था. यह मामला राजनारायण बनाम उत्तर प्रदेश’ नाम से जाना जाता है.
वकील शांतिभूषण ने सरकारी मशीनरी का दुरूपयोग सिद्ध करने के लिए यह उदाहरण किया कि प्रधानमंत्री के सचिव यशपाल कपूर ने राष्ट्रपति द्वारा उनका इस्तीफा मंजूर होने से पहले ही इंदिरा गांधी के लिए काम करना शुरू कर दिया था, जो कि सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग का पुख्ता सबूत था.
उस समय इलाहाबाद हाईकोर्ट के जज जगमोहन लाल सिन्हा ने अपने फैसले में माना कि इंदिरा गांधी ने सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग किया इसलिए जनप्रतिनिधित्व कानून के अनुसार उनका सांसद चुना जाना अवैध है.
(जज जगमोहन लाल सिन्हा)
अदालत ने साथ ही अगले 6 साल तक उनके कोई भी चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी. ऐसी स्थिति में इंदिरा गांधी के पास राज्यसभा में जाने का रास्ता भी नहीं बचा था. अब उनके पास प्रधानमंत्री पद छोड़ने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं था.
हालांकि अदालत ने कांग्रेस पार्टी को थोड़ी राहत देते हुए ‘नई व्यवस्था अर्थात नया प्रधानमन्त्री’ बनाने के लिए तीन हफ्तों का वक्त दे दिया था.
समस्या को हल करने के क्या प्रयास हुए थे?
ज्ञातव्य है कि इस समय देश में ‘इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया’ का माहौल था. ऐसे माहौल में इंदिरा के होते किसी और को प्रधानमंत्री कैसे बनाया जा सकता था. साथ ही इंदिरा अपनी पूरी पार्टी में किसी पर भी विश्वास नहीं करती थीं.
इस संकट के समय कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष डीके बरुआ ने इंदिरा गांधी को सुझाव दिया कि अंतिम फैसला आने तक वे कांग्रेस अध्यक्ष बन जाएं और उन्हें प्रधानमंत्री का पद सौंप दें.
पत्रकार इंदर मल्होत्रा के अनुसार, जब प्रधानमंत्री आवास पर यह चर्चा चल रही थी उसी समय वहां संजय गांधी आ गए. उन्होंने अपनी मां को कमरे से बाहर ले जाकर सलाह दी कि वे इस्तीफा न दें. उन्होंने इंदिरा गांधी को समझाया कि यदि उन्होंने प्रधानमंत्री का पद किसी और को दिया तो फिर वह व्यक्ति इसे नहीं छोड़ेगा और आपके द्वारा पार्टी में बनायीं गयी पकड़ ख़त्म हो जाएगी.
इंदिरा गांधी अपने बेटे के तर्कों से सहमत हो गई और उन्होंने तय किया कि वे इस्तीफा देने के बजाय 3 हफ़्तों की मिली मोहलत का फायदा उठाते हुए इस फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देंगी.
इस केस की सुनवाई जज जस्टिस वीआर कृष्णा अय्यर ने की थी. जज ने अपने फैसले में कहा कि वे इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर पूर्ण रोक नहीं लगाएंगे. सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा को प्रधानमंत्री बने रहने की अनुमति तो दे दी लेकिन कहा कि वे अंतिम फैसला आने तक सांसद के रूप में मतदान नहीं कर सकतीं.
जयप्रकाश नारायण
की भूमिका (Role of Jayaprakash Narayan before Emergency in India)
कोर्ट की उठापटक के बीच बिहार, गुजरात में कांग्रेस के खिलाफ छात्रों का आन्दोलन भी उग्र हो रहा था. बिहार में इस आन्दोलन को हवा दे रहे थे जयप्रकाश नारायण.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अगले दिन यानी 25 जून को दिल्ली के रामलीला मैदान में जयप्रकाश नारायण की रैली थी. जयप्रकाश ने इंदिरा गांधी के ऊपर देश में लोकतंत्र का गला घोंटने का आरोप लगाया और रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता के अंश ” सिंहासन खाली करो कि जनता आती है” का नारा बुलंद किया था.
(जयप्रकाश नारायण,एक रैली में)
जयप्रकाश ने विद्यार्थियों, सैनिकों, और पुलिस वालों से अपील कि वे लोग इस दमनकारी निरंकुश सरकार के आदेशों को ना मानें क्योंकि कोर्ट ने इंदिरा को प्रधानमन्त्री पद से हटने को बोल दिया है. बस इसी रैली के आधार पर इंदिरा ने आपातकाल लगाने का फैसला किया था. इसके अलावा इन कारणों ने भी इंदिरा को आपातकाल के लिए मजबूर किया था;
1. इंदिरा के खिलाफ पूरे देश में जन आक्रोश बढ़ रहा था. इसमें छात्र और सम्पूर्ण विपक्ष एकजुट हो गए थे.
2. कोर्ट के आदेश ने इंदिरा की हालात को पंगु बना दिया था क्योंकि इंदिरा अब संसद में वोट नहीं डाल सकती थी और उनको पार्टी के किसी नेता पर भरोसा भी नहीं था.
3. इसके अलावा इंदिरा को लगा कि जयप्रकाश के आवाहन पर सेना तख्ता पलट कर सकती है.
ऊपर दिए गए हालातों में इंदिरा को आपातकाल लगाने का सबसे बड़ा बहाना जयप्रकाश द्वारा बुलाया गया असहयोग आन्दोलन था. इसी आधार पर इंदिरा ने 26 जून, 1975 की सुबह राष्ट्र के नाम अपने संदेश में इंदिरा गांधी ने कहा, कि जिस तरह का माहौल (सेना, पुलिस और अधिकारियों के भड़काना) देश में एक व्यक्ति अर्थात जयप्रकाश नारायण के द्वारा बनाया गया है उसमें यह जरूरी हो गया है कि देश में आपातकाल लगाया (National Emergency in India) जाये ताकि देश की एकता और अखंडता की रक्षा की जा सके.
इस प्रकार देश में पहला राष्ट्रीय आपातकाल (first National Emergency in India)25 जून 1975 में लागू किया गया था जो कि 21 महीने अर्थात 21 मार्च 1977 तक चला था. उस समय देश के राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद थे.
इस तरह इंदिरा गाँधी द्वारा देश में लगाया गया आपातकाल भारत के राजनीतिक इतिहास की एक अमित घटना बन गया है. उम्मीद है कि अब आप ठीक से समझ गए होंगे कि देश में आपातकाल कब और क्यों लगाया गया था.
“वेतन“ भत्तों में कमी के अधिकार
अनुच्छेद ३६० के अंतर्गत यदि आपातकाल लागु किया जाता है तो राज्य व् केंद्रीय कर्मचारियों के वेतन व् भत्तों को कमी करने का धिकार मिल जाता है इसमें उच्च न्याययालय व् उच्तम न्यायलय के न्यायाधीशों को शामिल किया जाता है सभी के पेंशन व् भत्तों को रोका जा सकता है
राज्यों ने विरोध किया तो जाएगी सरकार
यदि आपातकाल के दौरान कोई राज्य विरोध करता है तो अनुच्छेद ३५६ के अंतर्गत वहा सरकार भंग करके राष्ट्रपति शाशन लगाया जा सकता है व् वह का बजट भी केंद्र सरकार पास कर सकती है अभी हाल में ही जम्मू कश्मीर का बजट सत्र केंद्र द्वारा पास किया गया है
शेयर बाजार में भी चर्चा है
सूत्रों के अनुसार शेयर बाजार में इसकी काफी चर्चा है की ७३ साल में पहली बार देश वित्तीय आपातकाल की ओर जा सकता है क्या ?