वसंत में करें वास्तु ऊर्जा का संतुलन, इन बातों का रखें ख्याल!

VON NEWS: प्रकृति में नई स्फूर्ति का संचार करने वाली वसंत ऋतु ऊर्जाओं में बड़ा बदलाव ला रही होती है। भवन की वास्तु ऊर्जाएं भी इससे अनछुई नहीं रहतीं। .

माघ के महीने की शुक्ल पंचमी से ऋतुराज वसंत का आगमन होता है जो अपने साथ लाता है उमंग और उल्लास। वसंत के सुहाने वातावरण में नई स्फूर्ति का संचार होने लगता है। सूर्य कुंभ राशि में प्रवेश करता है। एक नए बदलाव के प्रारंभ के लिए पेड़-पौधों में नई कोपलें आना शुरू होती हैं। फूलों की सुगंध के साथ भौरों का गुंजार, पक्षियों का कलरव प्रकृति में नए सृजन की बयार लाता है। शायद इसी करण वसंत को मधुमास भी कहा गया है। इस दौरान शुक्र ग्रह का प्रभाव रहता है जो काम, सौंदर्य, आकर्षण और सृजन के रूप में दिखता है।

सनातन धर्म की गहन दृष्टि सत्य अन्वेषक रही है। आने वाली पीढ़ियों के लिए ऋषियों ने वैज्ञानिक तथ्यों को पौराणिक कथाओं के आवरण में लपेटकर सुरक्षित रखा है। इसका बड़ा उदाहरण वसंत ऋतु के प्रथम दिन कामदेव एवं रति की पूजा के रूप में दिखता है। काम के बगैर जीवन नीरस ही नहीं बल्कि गतिहीन भी है। ऐसे में सृजन शक्ति का सम्मान करते हुए इसके सात्विक तथा मर्यादित रूप की पूजा आवश्यक है। इस दौरान प्रकृति फिर नया श्रंगार करती है। नूतन सृजन का प्रारंभ कोई साधारण घटना नहीं है। ऊर्जाओं में भी इस दौरान बड़ा बदलाव हो रहा होता है। भवन की वास्तु ऊर्जाएं इस परिवर्तन से अनछुई कैसे रह सकती हैं। यही कारण है कि वसंत के पहले दिन का आध्यात्मिक तथा क्वांटम ऊर्जाओं को साधने के लिहाज से बड़ा महत्व है। वसंत ऋतु विशेषकर इसका प्रथम दिवस भवन में वास्तु ऊर्जा जागरण तथा शोधन कार्य के लिए सर्वथा उपयुक्त माना जाता है।

भवन को ऊर्जायमान बनाने तथा उसमें वास्तु ऊर्जा के लिए वसंत पंचमी का दिन सृजन तथा सृष्टि की कारक ऊर्जाओं से ओतप्रोत होता है। पंचतत्व अर्थात आकाश, वायु, जल, अग्नि तथा पृथ्वी तत्व के साथ इस ऊर्जा का संयोजन वास्तु के संतुलन की स्थापना करने में प्रयोग होता है। वास्तु मूलत: ऊर्जाओं का संयोजन है। हमारे आस-पास के वातावरण और मानव शरीर में कई प्रकार की ऊर्जाएं विद्यमान हैं। ये ऊर्जाएं जब असंतुलित होती हैं तब अपना सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव छोड़ती हैं। वास्तु शोधन तथा संतुलन के दो महत्वपूर्ण सिरे हैं। पहला भवन, भूमि तथा दिशा और दूसरा, मानव शरीर, जिसे उस भवन में निवास करना है। ये दोनों ही ऊर्जा के स्रोत हैं। इस कारण दोनों ही तरफ से शोधन व संतुलन की आवश्यकता होती है और यही वास्तु में ज्योतिष तथा आयुर्वेद को विशेष महत्व देता है।

इस ऋतु की ऊर्जाएं भवन तथा इसके निवासियों की ग्लोबल तथा टेल्युरिक ऊर्जाओं पर अपना विशेष प्रभाव डालती हैं। मानव के मूलाधार एवं स्वाधिष्ठान, चक्र तथा वास्तु पुरुष के नैऋत्य (दक्षिण-पश्चिम) कोण एवं नाभि स्थान की ऊर्जाओं को उन्नत करने में शोधित क्रिस्टल्स तथा योग की क्रियाओं का प्रयोग लाभकारी होता है। इन ऊर्जाओं का संयमित तथा सात्विक रूप में लाभ लेने के लिए कॉस्मिक तथा आध्यात्मिक शक्तियों का प्रयोग करना होता है अन्यथा अनियंत्रित एवं अमर्यादित ऊर्जाएं हानिकारक हो जाएंगी। हमारे ऋषियों ने किसी भी पहलू की उपेक्षा नहीं की।

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