दून के रंगमंच का है सुनहरा अतीत
देहरादून,VON NEWS: कभी पूरे उत्तर भारत में दून के रंगमंच की धाक हुआ करती थी। यह वह दौर है, जब लखनऊ, प्रयागराज, वाराणसी, मुंबई, चंडीगढ़, सहारनपुर, भारत भवन भोपाल जैसे शहरों में स्थानीय नाट्य संस्थाओं की ओर से नाटकों के सफल प्रदर्शन के फलस्वरूप राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) का ध्यान दून की ओर भी आकृष्ट हुआ। रामलीला से आरंभ होकर दून का रंगमंच पहले कोलकाता की कोरिन्यियन ड्रामा कंपनी और फिर साधुराम महेंद्रू के लक्ष्मण ड्रामेटिक क्लब के पारसी नाटकों से होता हुआ 70 के दशक (1961 से 1970) तक पहुंचा। यहीं से दून के रंगमंच का स्वर्णिम काल शुरू होता है, जो 90 के दशक (1981 से 1990) तक बदस्तूर जारी रहा। इस कालखंड में यहां की कई नाट्य संस्थाओं व रंगकर्मियों ने राष्ट्रीय फलक पर न सिर्फ अपनी कला का लोहा मनवाया, बल्कि दून के रंगमंच को अलग पहचान भी दिलाई। इस सफलता में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका रही नेहरू युवा केंद्र की। चालिए आपको रंगमंच के इसी सुनहरे अतीत से परिचित कराते हैं।
नब्बे के दशक में देहरादून के नेहरू युवा केंद्र को रंगकर्मियों के बीच ‘मंडी हाउस’ के नाम से ख्याति प्राप्त थी। तब रंगमंच की समस्त गतिविधियां इसी केंद्र से संचालित हुआ करती थीं। यह दौर इस मायने में भी अविस्मरणीय है कि अमरदीप चड्ढा के बाद हिमानी शिवपुरी, श्रीश डोभाल, चंद्रमोहन व अरविंद पांडे को इसी दौरान राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रवेश मिला। इसी अवधि में अशोक चक्रवर्ती, अविनंदा, एवी राणा, अवधेश कुमार, सहदेव नेगी, ज्योतिष घिल्डियाल, ज्ञान गुप्ता, टीके अग्रवाल, सतीश चंद्र, तपन डे, दीपक भट्टाचार्य, अजय चक्रवर्ती, धीरेंद्र चमोली, रामप्रसाद सुंद्रियाल, गजेंद्र वर्मा, दादा अशोक चक्रवर्ती, अतीक अहमद, रमेश डोबरियाल, सुरेंद्र भंडारी, दुर्गा कुकरेती जैसे मंङो हुए रंगकर्मियों की मजबूत जमात भी खड़ी हुई। लेकिन, नेहरू युवा केंद्र के बंद होते ही नाट्य संस्थाओं के साथ रंगकर्मी भी बिखर-से गए।आज क्षेत्रीय भाषा की फिल्मों व वीडियो एलबमों की व्यस्तता के चलते कलाकारों के पास समय का अभाव है। इसका सीधा असर रंगमंच पर भी पड़ा। हालांकि, इस सबके बावजूद दून में वरिष्ठजनों का अनुभव और युवाओं की ऊर्जा रंगमंच की जोत जलाए हुए है। वरिष्ठ रंगकर्मी ज्योतिष घिल्डियाल कहते हैं कि रंगमंच मानवीय है। जब तक जीवन है, रंगमंच भी है। वह बीमार पड़ सकता है, थक सकता है, पर मर नहीं सकता। वरिष्ठ रंगकर्मी यमुनाराम कहते हैं कि रंगमंच को संतुष्टि तक ही सीमित नहीं रखा जा सकता। सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर संभावनाएं तलाश कर नए आयाम जुटाने होंगे।
रंगमंच शब्द ‘रंग’ और ‘मंच’ के मेल से बना है। रंग, जिसके तहत दृश्य को आकर्षक बनाने के लिए दीवार, छत और पर्दो पर विविध प्रकार की चित्रकारी की जाती है। साथ ही अभिनेताओं की वेशभूषा और सज्जा में भी विविध रंगों का प्रयोग होता है। मंच, जिसके तहत दर्शकों की सुविधा के लिए रंगमंच का तल फर्श से कुछ ऊंचा रखा जाता है। जबकि, दर्शकों के बैठने के स्थान को प्रेक्षागार और रंगमंच सहित समूचे भवन को प्रेक्षागृह, रंगशाला या नाट्यशाला कहते हैं। पश्चिमी देशों में इसे थिएटर या ऑपेरा नाम से जाना जाता है। माना जाता है कि नाट्यकला का विकास सर्वप्रथम भारत में ही हुआ।
चरित्र में जान फूंक देते थे दादा
दून के रंगमंच को दादा अशोक चक्रवर्ती के बिना पूर्ण नहीं माना जा सकता। नाटक ‘बर्फ की मीनार’ में उनका विलियम का चरित्र दर्शकों को आज भी याद है। नाटक ‘बर्फ की मीनार’ व ‘तलछट’ के दिल्ली समेत कई स्थानों पर सफल प्रदर्शन किए गए। वर्ष 1978 में उन्होंने रंगकर्मियों के साथ मिलकर ‘वातायन’ संस्था की स्थापना की और पूरी तरह नाटकों को समर्पित हो गए। उनके निर्देशन में ‘शंबूक की हत्या’, ‘मैन विदाउट शैडो’ व ‘निशाचर’ जैसे बहुचर्चित नाटकों का अनेक स्थानों पर प्रदर्शन हुआ। कैंसर जैसे असाध्य रोग के बावजूद उन्होंने अपने जीवन के अंतिम नाटक ‘अंधा भोज’ का निर्देशन किया।हालांकि, थोड़ा पीछे जाएं तो टिहरी राज्य के तत्कालीन रेजीडेंट शैमियर ने टिहरी में एक नाट्य क्लब की स्थापना कर ली थी। रियासत के सभी अधिकारी इस नाट्य क्लब के सदस्य होते थे। वर्ष 1921 तक इस क्लब के लिए प्रेक्षागृह भी बन गया, लेकिन नाटकों का मंचन इससे पूर्व से होने लगा था। अगस्त 1917 में टिहरी में नाटक ‘सत्य हरिश्चंद्र’ का पूर्वाभ्यास शुरू हो गया था और दो माह बाद इसे टिहरी में पारसी शैली में अभिनीत किया गया। नाट्य गृह बनने से टिहरी में नाटकों के लेखन व मंचन में तेजी आई और आने वाले वर्षो में ‘यहूदी की बेटी’, ‘खूबसूरत बला’, ‘सफेद खून’, ‘दानवीर कर्ण’ जैसे कुछ नाटकों का मंचन हुआ। वर्ष 1932 में विश्वंभर दत्त उनियाल रचित नाटक ‘बसंती’ ने ‘प्रह्लाद’ जैसी ही लोकप्रियता हासिल की।
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