गौरेया से फिर से चहका आंगन, लेकिन कौओं से सूनी हो गई घर की मुंडेर
लखनऊ VON NEWS: हमारे घर के आंगन की रौनक रही गौरैया की चहक फिर से सुनाई देने लगी है। इनकी संख्या बढ़ी है, लेकिन अधिक खुश न हों। कभी मेहमानों के आने का संदेश लेकर आंगन की मुंडेर पर बैठने वाला कौआ अब शहर से दूर होता जा रहा है। कोई महामारी आई न संक्रामक रोग फैला। इसके दोषी हम ही हैं। बढ़ते शहरीकरण, बदलती लाइफस्टाइल और प्रदूषण ने यह हालात पैदा किए।
“संयुक्त राष्ट्र“ सम्मेलन की रिपोर्ट ने खोली आंखें
प्रवासी जीवों पर हो रहे संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन ‘कॉप-13Ó में स्टेट ऑफ इंडियाज बड्र्स रिपोर्ट 2020 में आए ताजा आंकड़े चौंकाने वाले हैं। इन आंकड़ों के आधार पर अपने शहर के आसपास पाए जाने वाले पक्षियों की संख्या के बारे में पड़ताल की कई तो पता चला कि आंगन की मुंडेर पर बैठकर मेहमान की खबर देने वाला कौआ आंगन से दूर होता जा रहा है।
हमारी बदली जीवनचर्या ने छीना परिंदों का घरौंदा
विशेषज्ञ डॉ. टीएम त्रिपाठी ने बताया कि कौए फसलों से भोजन का इंतजाम करते हैं। शहरी इलाके में पेड़ों की कमी मुख्य कारण है तो ग्रामीण क्षेत्र में फसलों को बचाने के लिए कीटनाशकों का प्रयोग उनकी जान ले रहा है। पहले पेड़ों के साथ ही कच्चे मकानों और फूस से बनने वाली झोपड़ी पर उनका बसेरा होता था। वैज्ञानिक तो यह भी कहने लगे हैं कि मोबाइल टावर से निकलने वाली तरंगे उनकी प्रजनन क्षमता पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रही हैं। वाहनों से धुएं हो रहा प्रदूषण भी कौओं की नस्ल व संख्या कम होने का कारण बन रही है।
90 फीसद कम हुए “स्थानीय पक्षी“
लखनऊ विश्वविद्यालय में जंतु विज्ञान विभाग की प्रो. अमिता कनौजिया ने बताया कि गौरैया की आमद से हमें ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं है। पूरे इको सिस्टम में रहने वाले पक्षियों की आमद नहीं होने तक स्थिति चिंताजनक है। शहर में कौए तो 90 फीसद कम हो गए हैं। नीलकंठ, कठफोड़वा तो विलुप्तप्राय हो गए हैं। बुलबुल, तोता व कोयल में 80 फीसद की कमी आई है। तालाबों के आसपास रहने वाली चरखी, पनबुड्डी व बतख की संख्या भी 70 से 90 फीसद कम हुई है। ग्रामीण इलाकों में अभी इनकी संख्या ठीक जो 60 से 80 फीसद तक है। आमजन से लेकर पर्यावरणप्रेमियों के प्रयासों से गौरैया की संख्या सात साल में बढ़ी है।

2013- 2503
2014 – 3362
2015 – 5637
2016 -6036
2017- 7074
2018-8654
2019-11675
2020-15324
जलीय जीव जंतुओं के साथ बनेगा इको सिस्टम
वीआइपी रोड स्थित गौरांग वाटिका बनाने वाले सुरेंद्र नाथ पांडेय बताते हैं कि कौआ ही नहीं बुलबुल, बटेर, चरखी, कोयल, नीलकंठ जैसे पक्षी अब नजर नहीं आते। वाटिका में ऊंचाई पर रखे पानी से भरे मिट्टी के बर्तन में कुछ कौए, गौरैया, तोता आदि आने लगे हैं, लेकिन संख्या बेहद कम है।
कृष्णानगर के इंद्रपुरी निवासी नीलू शर्मा ने अपने घर के लॉन में पक्षियों के लिए घोंसला बनाया है। गौरैया के साथ ही अन्य पक्षी भी उनमें रहने लगे हैं। उनका कहना है कि इको सिस्टम को नकारा नहीं जा सकता। घरों के पास या छत पर लकड़ी के बने छेद वाले डिब्बों को रखने के साथ ही अनाज के दाने और पानी के घड़े रखे हुए हैं।
यह भी पढ़े
क्या विज्ञान के पास है आज के समय टूटने वाले युवा दिलों का इलाज